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Tuesday, 28 January 2014

स्थितप्रज्ञ


         ‘स्थितप्रज्ञ’ का मतलब क्या है ? यह शब्द यदि व्यक्ति विशेष के लिए प्रयुक्त होता है तो उसके लक्षण क्या हैं ? स्थितप्रज्ञ वह होता है जिसकी प्रज्ञा (बुद्धि) स्थिर है। उस व्यक्ति पर किसी भी परिस्थिति का कोई असर नहीं होता है – जैसे कि सुख-दुःख, सम-विषम परिस्थिति आदि। श्री कृष्ण को महाभारत में जगत्-गुरू कहा गया है। वह परमात्मा तो है ही, साथ-साथ समग्र विश्व के गुरू भी है – सभी लोगों का मार्गदर्शन करते है। श्रीमद्भगवतगीता का बोध उन्हों ने केवल विषादग्रस्त अर्जुन को नहीं दिया है, परंतु समग्र विश्व अर्जुनरूपी शिष्य है, जिसको उन्हों ने जीने की राह दिखाई है। इसी गीतारूपी बोध में स्थितप्रज्ञ का वर्णन अठारह श्लोकों में दिया गया है, जो स्थितप्रज्ञ व्यक्ति के अठारह लक्षण हैं। व्यक्ति के स्थितप्रज्ञ होने के लिए यह सभी अठारह गुण होने अनिवार्य है -                       
1.      जब मनुष्य मन में उठ रही सर्व कामनाओं का त्याग कर देता है तथा आत्मा द्वारा आत्मा में संतुष्टी पाता है (आत्मा का आनंद अंदर से खोजना जिसको योगी पुरूष निजानंद कहते है) तब वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है।
2.      दुःख के समय जो व्यग्र नहीं होता, सुख के प्रति कोई मोह न हो एवं जो राग, भय और क्रोध से मुक्त हो वह स्थितप्रज्ञ मुनि कहलाता है।
3.      जो सर्वत्र आसक्तिरहित हो और अच्छा या बुरा जो भी मिले, उससे खुश नहीं होता या दुःखी नहीं होता, उसकी बुद्धि स्थिर है।
4.      जिस तरह कछुआ सिकुडकर अपने अंगो को समेट लेता है, ठीक उसी तरह जो पुरूष अपनी इन्द्रियों को उपभोग से खिंच लेता है, उसकी बुद्धि स्थिरता पाती है।
5.      देहधारी के निराहारी रहने पर विषय तो निवृत्त होते हैं, परंतु उनकी आसक्ति विषयों में से नहीं जाती, आसक्ति तो केवल परमात्मा के दर्शन से ही जाती है।
6.      इन्द्रियाँ ऐसी गतिशील होती है कि उनके निग्रह का प्रयास करनेवाले विद्वान पुरूष के मन को भी जबरन अपनी और खिंच लेती है।
7.      इन इन्द्रियों को बस में कर योगी पुरूष को मुझमें तन्मय रहना चाहिए, क्योंकि जिसकी इन्द्रियाँ बस में हो उसकी बुद्धि स्थिर होती है।
8.      विषयों (भोगों) के विचार करनेवाले मनुष्य के मन में अतः इन के प्रति आसक्ति होती है, आसक्ति से कामना होती है और कामना से क्रोध पैदा होता है।
9.      क्रोध से सम्मोह उत्पन्न होता है, सम्मोह से स्मृति-भ्रंश होता है, स्मृति-भ्रंश से बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि के नाश के बाद मनुष्य संपूर्ण नष्ट होता है।
10.  जबकि अपने अंतरात्मा को वश में किया हो ऐसा मनुष्य राग-द्वेष रहित और स्वाधीन इन्द्रियों से प्रवृत्त होने के बावजूद अंतरमन की प्रसन्नता पाता है।
11.  प्रसन्नता के होने पर मनुष्य के सब दुःख नष्ट होते हैं क्योंकि प्रसन्न मनवाले व्यक्ति की बुद्धि जल्द ही स्थिर होती है।
12.  असंयमी की बुद्धि स्थिर नहीं होती और ना ही उसे श्रद्धा होती है, श्रद्धारहित को शांति नहीं और अशांत को सुख कहाँ से होगा ?
13.  क्योंकि भटकती इन्द्रियों में से जिस इन्द्रिय का अनुसरण मन करता है वह इन्द्रिय उस मनुष्य की बुद्धि को खिंच लेती है, ठीक वैसे ही जैसे हवा नाव को पानी में खिंच ले जाती है।
14.  अतः जिसकी इन्द्रियाँ उनके विषयों में से हर तरह से अंकुश में आ गई हैं, उसकी बुद्धि स्थिर होती है।
15.  जो सर्व प्राणियों की रात्री है, उसमें संयमी जागता है और जिस में प्राणी जगते है वह ज्ञानी की रात्री है।
16.  चारों तरफ़ से नदियों से भरे जाने पर भी समुद्र जैसे अचल रहता है, उस तरह सभी विषयों के प्रवेश होने पर भी स्थिर रहनेवाला मनुष्य शांति पाता है, विषयों की इच्छा करने वाला कभी शांति नहीं पाता।
17.  जो मनुष्य सभी कामनाओं को छोड़कर निःस्पृह, निर्मोही, अहंकार-रहित होकर रहता है, वह शांति पाता है।
18.  ब्रह्म को प्राप्त करनेवाले की स्थिति ऐसी है। उसको पाने के बाद मनुष्य मोह के बस में नहीं होता है, अंत समय पर भी इस स्थिति में रहकर वह शांत ब्रह्मपद को पाता है।         

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