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Wednesday, 21 January 2015

भारतीय साहित्य की समृद्ध विरासत

     संस्‍कृत भाषा आर्य परिवार की भाषा है। इसे भारत-युरोप परिवार भी कहते है। संस्‍कृत विश्‍व इतिहास की प्राचीनतम भाषाओं में से एक है। युरोप की ग्रीक तथा लेटिन, मध्‍य एशिया की अवेस्‍ता तथा प्राचीन फारसी इस प्राचीनतम भाषाओं के परिवार में से संस्‍कृत के साथ है। आर्य परिवार की दो शाखाएं है: पश्चिमी तथा पूर्वीय। पूर्वीय शाखा में भी दो वर्ग है: भारतीय वर्ग तथा इरानी वर्ग। भारतीय वर्ग में वैदिक संस्‍कृत, लौकिक संस्‍कृत तथा उसीमें से उत्‍पन्‍न या विकसित हिन्‍दी, गुजराती, बंग्‍ला आदि भाषाएं शामिल है। वैदिक समय में वेदों की रचना हुई। वेद न केवल धर्माचरण बतानेवाले ग्रंथ है परन्‍तु साथ ही वह जीवन जीने की सही राह भी दिखाते हैं।  वेद शब्‍द का संस्‍कृत मूल शब्‍द विद् से बना है, जिसका मतलब है जानना’; अर्थ स्‍पष्‍ट है वेद का मतलब ज्ञान की पुस्‍तक’ (a data base of knowledge)। वेदों से ही हमारे आज के नैतिक मूल्‍य जैसे कि सदाचरण, सत्‍य, अहिंसा आदि का जन्‍म हुआ है। माना जाता है कि इन्‍हें आकाशवाणी से सुनकर लिखा गया, अत: इन्‍हें श्रुति भी कहते हैं। वेदों का ज्ञान ऋषियों को उनकी अंतरात्‍मा से मिला, इसलिए इन्‍हें आगम’ भी कहा जाता है। वेद चार है : ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद -

  1. ऋग्वेद : यह सर्वप्रथम और सबसे बड़ा वेद है, जो 14 प्रकार के छंदों में 27 शाखाओं में विभक्‍त है। इसमें 10580 मंत्र 1,53,826 शब्‍द तथा 4,32,000 अक्षर हैं।
  2. यजुर्वेद : इसके दो भाग है - शुक्‍ल यजुर्वेद और कृष्‍ण यजुर्वेद। शुक्‍ल यजुर्वेद को वाजसनेय संहिता भी कहते है। इसमें 1900 मंत्र और 15 शाखाएं हैं। कृष्‍ण यजुर्वेद को तैतिरीय संहिता भी कहा जाता है इसमें 18000 मंत्र और 86 शाखाएं हैं। यजुर्वेद मुख्‍यत: यज्ञ आदि से संबंधित है।
  3. सामवेद : यह वेद विविध छंदो के गायन से संबंधित है। इसके 1700 मंत्रों में से केवल 75 को छोडकर शेष सभी ऋग्वेद से लिए गए हैं। यज्ञों के अवसर पर वैदिक संगीतज्ञ विविध छंद गाते हैं।
  4. अथर्ववेद : इस वेद के 6000 मंत्रों में अपार विषय वैविध्‍य है। इसकी 9 शाखाएं हैं। इस वेद में ब्रह्म विषयक वर्णन है।
      वेदांग 6 हैं: शिक्षा,  कल्‍प, व्‍याकरण, छंद, ज्‍योतिष एवं निरूक्‍त। वेदों के उपरांत उनके मंडल और ब्राह्मण ग्रंथ हुए। प्रत्‍येक वेद के अनेक ब्राह्मण ग्रंथ थे, जिनमें से वर्तमान में कुछ ही उपलब्‍ध हैं। ऋग्वेद के दो ब्राह्मण ग्रंथ हैं: शाखायन व ऐतरेय। यजूर्वेद के तीन ब्राह्मण ग्रंथ हैं: शतपथ ब्राह्मण, काण्‍व ब्राह्मण व तैत्‍तरीय ब्राह्मण। सामवेद के ग्‍यारह  ब्राह्मण ग्रंथ हैं: आर्षेय, जैमिनी-आर्षेय, संहितोपनिषद ब्राह्मण, मंत्र ब्राह्मण, वंश ब्राह्मण, संविधान ब्राह्मण, षडविंश ब्राह्मण, देवत् ब्राह्मण, ताण्ड्य ब्राह्मण, जैमिनीय ब्राह्मण, जैमिनीय उपनिषत्  ब्राह्मण। अथर्ववेद का मात्र एक ही ब्राह्मण ग्रंथ उपलब्‍ध है : गोपथ ब्राह्मण। सभी ब्राह्मण ग्रंथों मे यर्जुवेद का शतपथ ब्राह्मण सुविख्‍यात है, जिसमें 12000 ऋचाएं, 8000 यजुष् तथा 4000 समय हैं।
      ब्राह्मण ग्रंथ के उपरांत वैदिक समय में आरण्‍यक ग्रंथ और संहिताएं आदि भी रचे गये। संहिताओं की कुल संख्या चार है। वैदिक परंपरा के आखिर में उपनिषद आते हैं, इसलिए इन्‍हें वेद + अंत भी कहा गया है। उप का मतलब पास और नि: + सद का मतलब बैठना। ऋषि अपने शिष्‍यों को पास बिठाकर ज्ञान देते थे, अत: इनको उपनिषद कहा गया। उपनिषदों को ब्रह्मविषयक ग्रंथ भी कहे जाते हैं, जिनमें वेदों के रहस्‍य छोटी-छोटी आख्‍यायिकाओं के द्वारा प्रस्‍तुत किए गए हैं। इनकी संख्‍या (111 से 220)  के बारे में मतमतांतर है। इनमें से कुछ विख्‍यात है, जैसे कठोपनिषद, केनोपनिषद, इश उपनिषद, मण्‍डूक उपनिषद, माण्‍डूक्‍य उपनिषद, तैतिरीय उपनिषद, ऐतरेय उपनिषद, छांदोग्‍य उपनिषद, बृहदारण्‍यक उपनिषद, श्‍वेताश्‍वतर उपनिषद, प्रश्‍नोपनिषद आदि।
      तैति‍रीय उपनिषद के कुछ सूत्र काफी प्रसिद्ध है। सत्‍यं वद:, धर्मम् चर:, मातृदेवो भव:, पितृ देवो भव:, अतिथि देवो भव: आदि। मुण्‍डक उपनिषद का सत्‍यमेव जयते भी काफी प्रसिद्ध है।
      वेदकालिन साहित्‍य में स्‍मृतियों का भी बहुत महत्‍व है - (स्‍मृ का मतलब स्‍मरण करना, याद करना) वैदिक साहित्‍य के स्‍मरण में से स्‍मृतियों का जन्‍म हुआ। स्‍मृतियों की संख्‍या भी निश्चित नहीं है, फिर भी इनमें से मनुस्‍मृति, याज्ञवाल्‍क्‍य स्‍मृति, पाराशर स्‍मृति आदि प्रचलित है। मनुष्‍य जीवन (सभी 16 संस्‍कार) की जानकारी को मनुस्‍मृति में शामिल किया गया है। परिवार, पत्‍नी, बच्‍चों से लेकर समाज के प्रत्‍येक वर्ग, इंसान की हर उम्र की कथाएं विस्‍तृत रूप से वर्णित है। यह अत्‍यंत सरल भाषा में मार्गदर्शक ग्रंथ है जिसमें कहा गया है कि  ‘यत्र नार्यस्‍तु पूज्‍यन्ते रमन्ति तत्र देवता’ – जिस घर में नारी का उचित सन्‍मान है, वहीं देवो का वास होता है। इस की कुछेक उक्तियां आज के दौर में शब्‍दश: अनुपालन योग्‍य नहीं है, अन्‍यथा यह एक सुंदर ग्रंथ अवश्य है।
      वेदकालिन साहित्‍य के बाद पुराण की रचना हुई। पुराण कुल 18 हैं, जिसमें मुख्‍यत: मत्‍स्‍य, कूर्म, वराह, गरूड, शिव, देवी, भागवत आदि। पुराण काल के बाद लौकिक साहित्‍य की रचना हुई जिसके अनेक स्‍वरूप है: महाकाव्‍य, नाटक, गद्यकाव्‍य, आख्‍यान, गीति काव्‍य, चंपू आदि।   
      महाकाव्‍य : ऋषि वाल्मिकी रचित रामायण में मानवजीवन के उच्‍चतम आदर्श मूल्य – आदर्श राजा, आदर्श परिवार, कर्तव्‍य निष्‍ठा, सत्‍य परायणता, वचन पालन आदि का अत्‍यंत सुंदर वर्णन हैं। जीवन के चार पुरूषार्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष सभी महाभारत की कथा में आवरित हैं। इसीमें युद्ध के दौरान श्रीकृष्‍ण द्वारा अर्जुन को दिए गए उपदेश को श्रीमद्भगवत गीता कहा जाता है।
      इसके अलावा कालिदास, भारवि, माघ, अश्‍वघोष, भट्टी, कुमारदास, श्रीहर्ष आदि ने महाकाव्‍य लिखे हैं। संस्‍कृत साहित्‍य के पाँच सुप्रसिद्ध महाकाव्‍यों में दो कालिदास के रघुवंशम त‍था कुमारसंभवम है। इसके अलावा नैषधीय चरित, किरातारजुर्नीय, शिशुपालवध आदि विख्‍यात है। इसके उपरांत उर्मिकाव्‍य, तिहासिक काव्‍य तथा भर्तृहरी शतक की रचना हुई। उर्मिकाव्‍य में कालिदास का मेघदूत तथा ऋतुसंहार विख्‍यात है। ऐतिहासिक महाकाव्‍य में अश्‍वघोष का बुद्धचरित, बिल्‍हण का विक्रमोकदेव चरित तथा कल्‍हण की राजतरंगिणी सुख्‍यात है। भर्तृहरी के तीन शतक नीतिशतक, श्रृंगारशतक, वैराग्यशतक लोकप्रिय है।
      नाटक: कालिदास, भास, भवभूति, शुद्रक, विशाखदत्‍त, भट्टनारायण, हर्षदेव राजशेखर, जयदेव, कृष्‍णमिश्र आदि ने नाटक लिखे है। कालिदास का अभिज्ञानशाकुंतलम् विश्‍वविख्‍यात है। तदुपरांत भवभूति का उत्तरराम‍चरित व भास का स्‍वप्‍नवासवदत्‍ता अत्‍यंत प्रसिद्ध हैं। इसके अलावा, शुद्रक का मृच्‍छकटिक, विशाखदत्त का मुद्राराक्षस, भवभूति का मालतीमाधव तथा जगन्‍नाथ पंडित के पॉंच लहरी काव्‍य – जिनमें से गंगा लहरी, करूणा लहरी ज्‍यादा प्रसिद्ध है।
      गद्य साहित्‍य – इसको आख्‍यान साहित्‍य भी कहते हैं। इसमें मुख्यत: नीतिकथाएँ व लोककथाएँ होती है। भारतीय साहित्य में नीतिकथाओं में पंडित विष्णु शर्मा की पंचतंत्र तथा नारायण पंडित की हितोपदेश प्रमुख है। दादीमा की कहानियां जो हमारे देश में काफी प्रचलित है इन्ही से उत्‍पन्‍न हुई हैं। जबकि लोककथाओं में विक्रम-वेताल की कहानियाँ, सिंहासन बत्तीसी आदि जनमानस में स्थान बनाएँ हुए है।       

ईशावास्‍य उपनिषद के कुछ मंत्र

     भारतीय संस्कृति में चार वेद, अठारह पुराण और उपनिषद अत्‍यंत महत्‍त्‍वपूर्ण है। इसी से हिन्‍दु धर्म का आधुनिक स्‍वरूप सामने आया है। उपनिषदों में ईशावास्‍य उपनिषद एक ऐसा उपनिषद है जिसमें पूरे विश्‍व को ईश्‍वर का आवास कहा गया है। इस के कुछ श्‍लोक बहुत ही सुंदर है, जिन में से कुछ आपके समक्ष प्रस्‍तुत है:    

o   ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्‍पूर्णमुदच्‍यते।
पूर्णस्‍य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्‍यते।।
ॐ शांति: शांति: शांति:।।
Ø वह पूर्ण है। यह पूर्ण है। पूर्ण से ही पूर्ण का उद्भव होता है। पूर्ण में से पूर्ण के निकलने पर जो बचता है वह भी पूर्ण है। सर्वत्र शांति हो ।

o   ईशा वास्‍यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्‍यां जगत्।
तेन त्‍यक्‍तेन भुंजीथा मा गृध: कस्‍यस्विद्धनम्।।(1)
Ø इस विश्‍व में जो कुछ चराचर है वह सभी इश्‍वर द्वारा आवरित है और इश्‍वर सब में बसे हुए है ऐसा सोचकर आप त्‍याग करने के बाद उपभोग करों (आप के जीवन निर्वाह जितना उपभोग में लो, परंतु अन्‍यों के लिए भी थोडा त्‍याग करो) धन छिनने की इच्‍छा मत रखो, क्‍योंकि वास्‍तव में यह धन किसका है ? (इश्‍वर का है आप का नहीं)

o   कुर्वन्‍नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समा:।
एवं त्‍वयि नान्‍यथेतो ड स्ति न कर्म लिप्‍यते नरे।।(2)
Ø यहॉं इस लोक में कर्म करते रहकर सौ वर्ष जीने की इच्‍छा करो। आप के लिए यह एक ही मार्ग है, अन्‍य कोई मार्ग नहीं है। कर्म मनुष्‍य से जुड़ते नहीं।

o   असुर्या नाम ते लोका अन्‍धेन तमसा वृता:।
तांस्‍ते प्रेत्‍याभिगच्‍छन्ति ये के चात्‍महनोजना:।।(3)
Ø ऐसे कुछ प्रदेश है जहॉं कभी प्रकाश नहीं पहुंचता है इसलिए वे तमस से घिरे है। जो कोई जीव आत्‍मघाती है वह मृत्‍यु के बाद ऐसे (नर्क से) प्रदेश में जाता है।
  
o   अनेजदेकं मनसोजवीयो नैनद्देवा आप्‍नुवन्‍पूर्वमर्षत।
तद्धावतो ड न्‍यानत्‍येती तिष्‍ठत्‍तस्मिन्‍नपोमातरिश्‍वा दधाति।।(4)
Ø वह परम तत्‍व अचल है, एक ही है, मन से भी अधिक वेगवान है। वह जहॉं पहले से ही पहुंच चुके है वहॉं उनको देव भी पहुंच नहीं सकते है। वह स्थिर होने के बावजूद अन्‍य गतिशीलों से आगे निकल जाते है। वह अपने बल पर मातरिश्‍वा (समष्टि प्राण) कर्मों को धारण करता है।

o   तदेजति तन्‍नैजति तद् दूरे तद्वन्तिके ।
तदन्‍तरस्‍य सर्वस्‍य तदु सर्वस्‍यास्‍य बाह्यत: ।।(5)
Ø वह (परमात्‍मा) क्रियाशील है, फिर भी अचल और अविकारी है। वह दूर है फिर भी नजदीक है। वह इन सब में है और इन सब के बाहर भी है।

o   यस्‍तु सर्वाणि भूतान्‍यात्‍मन्‍येवानुपश्‍यति ।
सर्व भूतेषु चात्‍मानं ततो न विजुगुप्‍सते ।।(6)
Ø जो व्‍यक्ति सर्व प्राणियों को आत्‍मा में ही देखता है और सर्व प्राणियों में आत्‍मा को देखता है अत: वह उसका तिरस्‍कार नहीं करता है।

o   यस्मिन् सर्वाणि भूतान्‍यात्‍मैवाभूद्विजानत: ।
तत्र को मोह: क: शोक एकत्‍वमनुपश्‍यत: ।।(7)
Ø जिस स्थिती में, विशेष रूप से जाननेवाले व्‍यक्ति के लिए सर्व प्राणी आत्‍मा ही हो गए है, उस स्थिति में सभी में समजपूर्वक एकता को देखनेवाले के लिए क्‍या शोक और क्‍या मोह ?   

o   स पर्यगाच्‍छुकमकायमव्रण -
मस्‍नाविरं शुद्वमपापविद्धम् ।
कविर्मनीषी परिभू: स्‍वयंभू -
र्याथातथ्‍यतो ड र्थान् व्‍यदधाच्‍छाश्वतीभ्‍य: समाभ्‍य: ।। (8)
Ø वह सर्वगत, तेजस्‍वी, शरीररहित, विकाररहित, अस्‍नायु, शुद्ध, पाप से अलिप्‍त, ज्ञानी, मेधावी, सर्वोपरी और स्‍वयंभू है, उसने सनातन देवों को अपनी योग्‍यतानुसार कर्मों की प्रेरणा दी है।

o   हिरण्‍मयेन पात्रेय सत्‍यस्‍यपिहितं मुखम् ।
तत्‍वं पूषन्‍नापावृणु सत्‍यधर्माय दृष्‍टये ।।(15)
Ø सत्‍य का मुख सोने से बने पात्र से ढका हुआ है, अत: हे पूषनदेव सत्‍य जानने के इच्‍छुक को देखने के लिए उसको खोलिये।


o   वायुरनिलममृतमथेदं भस्‍मान्‍तं शरीरम् ।
ॐ क्रतोस्‍मर कृतं स्‍मर, क्रतो स्‍मर कृतं स्‍मर ।।(17)

Ø मेरा प्राण अमृत महाप्राण (इश्‍वर) में मिल जाओं, मेरे यह शरीर का अंत भस्‍म में हो। हे यज्ञदेव (चिताग्नि) मेरे किए हुए कर्म तथा मेरे द्वारा हुए कर्मों का स्‍मरण करों।

o   अग्‍ने नय सुपथा राये अस्‍मान्
विश्‍वानि देव वयुनानि विद्वान ।
युयोध्‍यस्‍मज्‍जुहुराणमेनो
भूयिष्‍ठां ते नम उक्ति विधेम ।।(18)

Ø हे अग्निदेव आप मेरा (परलोकगमन का) मार्ग सरल बनाओ, हे विश्‍वदेव मैंने जो भी कोई कर्म किए हैं, वह आप जानते हो उनके सामने आप युद्ध करो (उनको आप जला दो) और मुझे मुक्ति दो। मैं यह स्‍तुति बार-बार करूं।

मृत्‍यु के बाद होनेवाले अग्निसंस्कार को यज्ञ कहा गया है। अग्निदेव इस यज्ञ के देव है जिनको हम अपने पापों की हवि इस प्रार्थना के साथ देते है कि यज्ञ के फलस्‍वरूप वे हमें पापों से मुक्ति दें ताकि हमारी आत्मा अविनाशी परमात्‍मा में मिल जाऍं।