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Wednesday, 21 January 2015

ईशावास्‍य उपनिषद के कुछ मंत्र

     भारतीय संस्कृति में चार वेद, अठारह पुराण और उपनिषद अत्‍यंत महत्‍त्‍वपूर्ण है। इसी से हिन्‍दु धर्म का आधुनिक स्‍वरूप सामने आया है। उपनिषदों में ईशावास्‍य उपनिषद एक ऐसा उपनिषद है जिसमें पूरे विश्‍व को ईश्‍वर का आवास कहा गया है। इस के कुछ श्‍लोक बहुत ही सुंदर है, जिन में से कुछ आपके समक्ष प्रस्‍तुत है:    

o   ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्‍पूर्णमुदच्‍यते।
पूर्णस्‍य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्‍यते।।
ॐ शांति: शांति: शांति:।।
Ø वह पूर्ण है। यह पूर्ण है। पूर्ण से ही पूर्ण का उद्भव होता है। पूर्ण में से पूर्ण के निकलने पर जो बचता है वह भी पूर्ण है। सर्वत्र शांति हो ।

o   ईशा वास्‍यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्‍यां जगत्।
तेन त्‍यक्‍तेन भुंजीथा मा गृध: कस्‍यस्विद्धनम्।।(1)
Ø इस विश्‍व में जो कुछ चराचर है वह सभी इश्‍वर द्वारा आवरित है और इश्‍वर सब में बसे हुए है ऐसा सोचकर आप त्‍याग करने के बाद उपभोग करों (आप के जीवन निर्वाह जितना उपभोग में लो, परंतु अन्‍यों के लिए भी थोडा त्‍याग करो) धन छिनने की इच्‍छा मत रखो, क्‍योंकि वास्‍तव में यह धन किसका है ? (इश्‍वर का है आप का नहीं)

o   कुर्वन्‍नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समा:।
एवं त्‍वयि नान्‍यथेतो ड स्ति न कर्म लिप्‍यते नरे।।(2)
Ø यहॉं इस लोक में कर्म करते रहकर सौ वर्ष जीने की इच्‍छा करो। आप के लिए यह एक ही मार्ग है, अन्‍य कोई मार्ग नहीं है। कर्म मनुष्‍य से जुड़ते नहीं।

o   असुर्या नाम ते लोका अन्‍धेन तमसा वृता:।
तांस्‍ते प्रेत्‍याभिगच्‍छन्ति ये के चात्‍महनोजना:।।(3)
Ø ऐसे कुछ प्रदेश है जहॉं कभी प्रकाश नहीं पहुंचता है इसलिए वे तमस से घिरे है। जो कोई जीव आत्‍मघाती है वह मृत्‍यु के बाद ऐसे (नर्क से) प्रदेश में जाता है।
  
o   अनेजदेकं मनसोजवीयो नैनद्देवा आप्‍नुवन्‍पूर्वमर्षत।
तद्धावतो ड न्‍यानत्‍येती तिष्‍ठत्‍तस्मिन्‍नपोमातरिश्‍वा दधाति।।(4)
Ø वह परम तत्‍व अचल है, एक ही है, मन से भी अधिक वेगवान है। वह जहॉं पहले से ही पहुंच चुके है वहॉं उनको देव भी पहुंच नहीं सकते है। वह स्थिर होने के बावजूद अन्‍य गतिशीलों से आगे निकल जाते है। वह अपने बल पर मातरिश्‍वा (समष्टि प्राण) कर्मों को धारण करता है।

o   तदेजति तन्‍नैजति तद् दूरे तद्वन्तिके ।
तदन्‍तरस्‍य सर्वस्‍य तदु सर्वस्‍यास्‍य बाह्यत: ।।(5)
Ø वह (परमात्‍मा) क्रियाशील है, फिर भी अचल और अविकारी है। वह दूर है फिर भी नजदीक है। वह इन सब में है और इन सब के बाहर भी है।

o   यस्‍तु सर्वाणि भूतान्‍यात्‍मन्‍येवानुपश्‍यति ।
सर्व भूतेषु चात्‍मानं ततो न विजुगुप्‍सते ।।(6)
Ø जो व्‍यक्ति सर्व प्राणियों को आत्‍मा में ही देखता है और सर्व प्राणियों में आत्‍मा को देखता है अत: वह उसका तिरस्‍कार नहीं करता है।

o   यस्मिन् सर्वाणि भूतान्‍यात्‍मैवाभूद्विजानत: ।
तत्र को मोह: क: शोक एकत्‍वमनुपश्‍यत: ।।(7)
Ø जिस स्थिती में, विशेष रूप से जाननेवाले व्‍यक्ति के लिए सर्व प्राणी आत्‍मा ही हो गए है, उस स्थिति में सभी में समजपूर्वक एकता को देखनेवाले के लिए क्‍या शोक और क्‍या मोह ?   

o   स पर्यगाच्‍छुकमकायमव्रण -
मस्‍नाविरं शुद्वमपापविद्धम् ।
कविर्मनीषी परिभू: स्‍वयंभू -
र्याथातथ्‍यतो ड र्थान् व्‍यदधाच्‍छाश्वतीभ्‍य: समाभ्‍य: ।। (8)
Ø वह सर्वगत, तेजस्‍वी, शरीररहित, विकाररहित, अस्‍नायु, शुद्ध, पाप से अलिप्‍त, ज्ञानी, मेधावी, सर्वोपरी और स्‍वयंभू है, उसने सनातन देवों को अपनी योग्‍यतानुसार कर्मों की प्रेरणा दी है।

o   हिरण्‍मयेन पात्रेय सत्‍यस्‍यपिहितं मुखम् ।
तत्‍वं पूषन्‍नापावृणु सत्‍यधर्माय दृष्‍टये ।।(15)
Ø सत्‍य का मुख सोने से बने पात्र से ढका हुआ है, अत: हे पूषनदेव सत्‍य जानने के इच्‍छुक को देखने के लिए उसको खोलिये।


o   वायुरनिलममृतमथेदं भस्‍मान्‍तं शरीरम् ।
ॐ क्रतोस्‍मर कृतं स्‍मर, क्रतो स्‍मर कृतं स्‍मर ।।(17)

Ø मेरा प्राण अमृत महाप्राण (इश्‍वर) में मिल जाओं, मेरे यह शरीर का अंत भस्‍म में हो। हे यज्ञदेव (चिताग्नि) मेरे किए हुए कर्म तथा मेरे द्वारा हुए कर्मों का स्‍मरण करों।

o   अग्‍ने नय सुपथा राये अस्‍मान्
विश्‍वानि देव वयुनानि विद्वान ।
युयोध्‍यस्‍मज्‍जुहुराणमेनो
भूयिष्‍ठां ते नम उक्ति विधेम ।।(18)

Ø हे अग्निदेव आप मेरा (परलोकगमन का) मार्ग सरल बनाओ, हे विश्‍वदेव मैंने जो भी कोई कर्म किए हैं, वह आप जानते हो उनके सामने आप युद्ध करो (उनको आप जला दो) और मुझे मुक्ति दो। मैं यह स्‍तुति बार-बार करूं।

मृत्‍यु के बाद होनेवाले अग्निसंस्कार को यज्ञ कहा गया है। अग्निदेव इस यज्ञ के देव है जिनको हम अपने पापों की हवि इस प्रार्थना के साथ देते है कि यज्ञ के फलस्‍वरूप वे हमें पापों से मुक्ति दें ताकि हमारी आत्मा अविनाशी परमात्‍मा में मिल जाऍं।    

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